Friday, September 30, 2011

लौ के चक्कर काटता पतंगा हो गए .....

हंस कही जब भीड़ से जुदा हो  गए
कौए चीख कर बोले तो खुदा हो गए

वक़्त के मसीहा थे जो बड़ी शान से
वक़्त आया तो सब गम शुदा हो गए

खाते थे जो कसमे साफगोई की
वो लोग आज खुद मैकदा हो गए

दर्द जब बड़ गए हद से आगे
बुजुर्गों की आँख का तजुर्बा हो गए

पा ना सके जब कोई मुकाम हुनर
किसी के मुकाम का तमगा हो गए

आसमां में उड़ने की थी जिनको ख्वाइश
लौ के चक्कर काटता  पतंगा हो गए ...


नरेश "मधुकर"

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