Monday, December 24, 2012

कौन ?


कौन ?

उलफत में खुद को हमसा मिटाता है कौन
बेगाने शहर में अब राह दिखाता है कौन ?

इस ज़माने कि नज़र कमज़र्फ है बड़ी लेकिन
देखे हमे खुद कि नज़र में गिराता है कौन ?

इन उजालों ने कई दोस्त बना दिए है मेरे
देखे अंधेरों में साथ निभाता है कौन ?

निभाया है सबको बड़ी शिद्दत से मधुकर
देखे ज़रा हमसे नज़र चुराता है कौन ?

बढ़ चुके है कदम अब जो मदमस्त होकर
देखें अब ज़रा इन्हें रोक पाता है कौन ... ?

नरेश मधुकर
 —copyright  2012

Sunday, November 11, 2012

दिल बैरागी


दिल बैरागी , दिल बैरागी
दिल बैरागी ,दिल बैरागी ... २

जिस दिन से तू छोड़ गया है
अरमान सारे तोड़ गया है
ढूंढें नदिया ढूंढे किनारा
तू ही मंजिल तू ही सहारा                                                                    
हसरत रात भर जागी

दिल बैरागी, दिल बैरागी
दिल बैरागी, दिल बैरागी ... २

इस दर भटका ,उस दर भटका
कौन है मधुकर इस जहाँ में किसका
कब से खड़ा हूँ जिद पे अड़ा हूँ
तेरे लिए इस राह पड़ा हूँ
प्रीत है तुझ से लागी

दिल बैरागी ,दिल बैरागी
दिल बैरागी ,दिल बैरागी ... २

किस से कहूँ मैं, किसको सुनाऊँ
ज़ख्म दिल के मैं किसको दिखाऊँ
आते हैंऔर चले जाते है
अपने पराये कतराते हैं
दामन मेरा दागी

दिल बैरागी ,दिल बैरागी
दिल बैरागी ,दिल बैरागी ... २

नरेश मधुकर
copyright 2012

Monday, November 5, 2012

इश्क दा रोग बुरा


इश्क दा रोग बुरा, लग न किसे नू जाए                
बिन तेरे फिर भी दिल नू चैन न आये ...

तन्हाई मिल जाती हैं , जब कोई साथ न हो
सुनले गीत खामोशी के, जब कोई बात न हो
सुन ले गीत खामोशी के ,जब कोई बात न हो
फिर हाले दिल किसी को कोई क्यूँ सुनाये

इश्क दा रोग बुरा , लग न किसे नू जाए
बिन तेरे फिर भी दिल नू चैन न आये ...

गमों ने घेरा है , हर ओर बस अँधेरा है  
न मैं किसी का ,न ही कोई यहाँ मेरा है
न मैं किसी का न कोई यहाँ मेरा है
फिर आखिर कोई, क्यूँ दिल को जलाये

इश्क दा रोग बुरा लग न किसे नू जाए
बिन तेरे फिर भी दिल नू चैन न आये ...

नरेश 'मधुकर'

Monday, October 8, 2012

पार लगाये तुझे ....

पार लगाये तुझे जब खुद मौला
डर किस बात का तुझको सताए ...

पार लगाये तुझे ....

ये दुनियां सब कुछ शोर शराबा 
चाहे घूम काशी मथुरा चाहे घूम काबा 
हाथ है उसका तुझपे सदा ही 
तोड़ सारे बंधन तू  जोड़ ओसे धागा

पार लगाये तुझे ...

तू न किसी का है नहीं कोई तेरा
फिर तू फिरे हैं क्यूँ दरदर भागा
तुझमे समाया है वो तू है उसी का
बाट देख किसकी तू रात भर जागा

पार लगाये तुझे ...

मैं पापी तेरी शरण पड़ा हूँ
सब जग है झूठा इक तेरा नाम साचा
यूँ ही तिल तिल कट गयी रे उमरिया
मन मेरा तेरे सिवा कहीं भी न लागा

पार लगाये तुझे जब खुद मौला
डर किस बात का तुझको सताए

पार लगाये तुझे ....

नरेश मधुकर




Wednesday, September 5, 2012

अंतर्मन ...


मैं कोई बहुत बड़ा  कवि नहीं हूँ ,न ही कोई ऐसी बड़ी  शख्सियत ...... मैं केवल एक आम इंसान हूँ एक ऐसा आम आदमी जो सुबह उठता है हज़ारों सपने लेकर और दिन भर अपने आप को इस मायूस भीड़ में दूंदता है .शाम होते होते थक जाता है और घर लौट ता है इस एहसास के साथ ...

                                          ''इतनी अच्छी दुनिया अब रही ही नहीं है''

इस  आम आदमी ने जीवन में बहुत कुछ देखा,सहा,और महसूस किया है और जितना भी ज्ञान है वो अपने अंतर्मन के एहसास से ही  अर्जित किया है , कई घटनाओं व दुर्घटनाओं का शिकार होने पर भी उस आम आदमी ने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी सब कुछ परम पिता परमेश्वर पे छोड़ दिया और एक ही पंक्ति में अपने जीवन का सार देखा
                                       '' दीनबंधु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ ''

ईश्वर ने इन पंक्तियों की  लाज भी रखी .जीवन में कई बार उसे लगा की शायद मैंने पिछले जनम में कुछ तो  किया है जो आज इस युग और काल में प्रभु ने पैदा कर दिया और ये सब मुझे देखना पड़ा है हर तरफ पाप, द्वेश,प्रतिस्पर्धा ,भौतिकता,हिंसा,क्रोध,और पता नहीं किस किस तरह के नए नए कुरूप अवतार इस संसार में घर किये हुए है जो इतने बलशाली दीखते है जैसे सीधे सरल इंसान को तो खा ही जायेंगे ....परन्तु उसे विश्वास था की  इन सब को भी बनाने वाला वही ईश्वर है जिसने प्रेम,स्नेह,सरलता,सच्चाई,वफ़ा,जैसे एहसास भी बनाये है ये सारे कुअवातार बलशाली दिखाई  ज़रूर देते  है लेकिन अंततः उनकी पराजय भी निश्चित है.

इस आम इंसान को हैरानी  है की सियासत के चलते लोगों ने सिर्फ ज़मीन और रूतबा ही नहीं बांटा बल्कि अब तो ये हद है इस प्रतिस्पर्धा के दौर के चलते की वो अब भाषा, साहित्य और अंतर्मन का भी बंटवारा चाहते है जबकि भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है किसी की निजी जागीर नहीं .क्या जो बोल नहीं पाते उनके विचार नहीं होते ,क्या पंछियों के विचार नहीं होते बल्कि समझने वाला हो तो जल ,हवा ,धरती ,अम्बर इन सभी की खामोशी इतनी बोलती हुई प्रतीत होती है की इंसान को छोटा महसूस करा दे जो की कभी राजस्थानी तो कभी उर्दू ,कभी मराठी तो कभी गुजराती साहित्य के आधार पे बंटवारा चाहता है और कब सियासत का शिकार हो जाता है उसे खुद भी मालुम नहीं पड़ता.साहित्य को इस सियासी खेल तमाशे से बचाए रखने की ज़रूरत है क्यूंकि साहित्य एक ऐसी धरोहर है जो किसी भी सभ्यता की महानता का निर्मल आईना है और इस आईने पे चालाकी की खरोंचे ठीक नहीं है.

ये व्यवस्थाओं का युग है , कलाकार से ज्यादा व्यवस्थाकार का महत्व हो गया है
आज कल यही व्यवस्थाकार कहीं न कहीं कलाकार का मनोबल तोड़ता दिखाई देता हैं .इस बात को समझने की आवश्यकता हैं की यदि कलाकार की भावनाओं का ही नाश हो जायेगा तो व्यवस्था फिर किस चीज़ की करेंगे इसलिए दरअसल महत्व भावनाओं का है जिस से कला का जन्म होता है और कलाकार भावनाओं के वशीभूत होकर प्रदर्शन करता है अपनी कला का .इस चमत्कारिक भाव तत्त्व को बचाए रखने की ज़रूरत हैं दुनयावी खेल तमाशे से .

एक और बात जो सोचने पे मजबूर करती है की बड़े कवि व गज़लकार कैसे एक वर्ष में पांच दस किताबें लिख लेते है जबकि लेखनी तो तभी उठाता है इंसान जब अंतर्मन में घुटन हो और विचारों की अभिव्यक्ति कहीं न कहीं दुनियादारी के चलते बाधित होती हो ... तभी उस लेखन में रस और वो बात आती है जो दुनिया को अच्छी लगती है .... जहा तक इस आम आदमी का सवाल है उसे तीन वर्ष लग गए ये सब लिखने में. और लोगो तक पहुँचाने में
खैर जो भी है सब बातों का उत्तर काल के चलते इंसान खुद ही ढूंढ लेता है इस का जवाब भी मिल ही  जाएगा.

इस सब दुनियावी शोर शराबे के बीच रहते हुए भी इस आम आदमी ने प्रेम का  पावन एहसास महसूस किया  और जो कुछ उसे इस एहसास से मिला वो पंक्तिबद्ध कर ''जज्बात्नामा'' एक खुबसूरत तोहफे के रूप में दुनिया को लौटाने का प्रयास किया है.ये प्रयास कितना सफल हुआ ये अभी ईश्वर की इच्छा और भविष्य की गोद में है

उस प्रेरणा स्त्रोत का आभार व्यक्त किये बिना ये सब अधूरा है जिस की वजह से ''जज्बात्नामा'' है सच तो ये है की यदि वो इंसान जीवन में न आता तो ये किताब कभी पूरी न होती उसका ख़याल मुझे सदा मेरे जज़्बात  कागज़ पे उतारने  को प्रेरित करता रहा ईश्वर  उसे जीवन में वो सब कुछ दे जो उसने चाहा है ...

आशा है ये प्रयास आप लोगो को अच्छा लगेगा और आप दिल से महसूस करेंगे इसका आम आदमी के अंतर्मन को

मैं जज्बातनामा समर्पित करता हूँ  मेरे परम पिता परमेश्वर को जिसने मुझे ये सब पल दिए और ये सब लिखने,सोचने और समझने की शक्ति दी ... जय श्री कृष्ण


नरेश''मधुकर''  

Sunday, September 2, 2012

न ज़मीं मिली न आस्मां मुझको


न ज़मीं मिली न आस्मां मुझको 
न मिली मंजिल न कारवां मुझको

बिन तेरे ये शाम नहीं कटती 
लगे कातिल ये आस्मां मुझको 

तेरे तस्सवुर से आबाद था जो 
लगे वो शहर अब वीरां मुझको


रहे फिरते यूँ ही दरबदर मधुकर 
सुनाती आवारगी दास्ताँ मुझको 


बिन तेरे जीए जा रहा हूँ बेसुध
लगे तिश्नगी रहनुमां मुझको

नरेश मधुकर

Saturday, September 1, 2012

ऐ मेरे रहनुमां ...

ऐ मेरे रहनुमां ,ऐ मेरे रहनुमां
ऐ मेरे रहनुमां ,ऐ मेरे रहनुमां ... 

मौला मेरे कुछ रहम कर दे 
अपने बन्दे पे कुछ करम कर दे 
हूँ भटकता मैं कब से दर बदर 
मौला मुफलिसी अब खतम कर दे 

ऐ मेरे रहनुमां ... ऐ मेरे रहनुमां
ऐ मेरे रहनुमां ... ऐ मेरे रहनुमां

दर पे तेरे अब आ बैठा हूँ
पूछ मत आज मैं कैसा हूँ
सब कहते हैं अब दीवाना मुझे
तू हैं मुझसा मैं तेरे जैसा हूँ

है समझता जाने क्या ये जहाँ
हर शख्स लगे अकेला यहाँ
दूर सबका तू ये भरम कर दे
अपने बंदे पे कुछ
 रहम कर दे 


ऐ मेरे रहनुमां ... ऐ मेरे रहनुमां
ऐ मेरे रहनुमां ... ऐ मेरे रहनुमां

गुलिस्ताने दिल आज सुखा है
लगता हर शख्स अब तो झूठा है
सूखी हसरत को ज़रा नम कर दे
मौला मुफलिसी अब खतम कर दे

ऐ मेरे रहनुमां , ऐ मेरे रहनुमां
ऐ मेरे रहनुमां ,ऐ मेरे रहनुमां ....

नरेश 'मधुकर' कापीराईट २०१२

Friday, August 31, 2012

ये डगर पूछे


पूछे हवाएं और ये डगर पूछे 
मेरे कातिल मुझी से मेरा घर पूछे 

बड़ा मशगूल है हर शख्स यहाँ पर 
दीवानों कि यहाँ कौन खबर पूछे 

क्या पूछते हो मुस्कराहट का सबब 
कोई मुझ पे बीता वो कहर पूछे 

क्यूँ चल दिए मुझे छोड़ कर तुम

मुझ से मेरा तन्हा सफर पूछे

क्या कीमत हैं तेरे जज्बातों की  ?
आज मुझ से ये ज़ालिम शहर पूछे ...

नरेश मधुकर copyright 2012

Thursday, August 16, 2012

ये शहर देखो


इन निगाहों से ये शहर देखो
हम पे बरपा फिर जो कहर देखो 

बड़ी मुद्दत से खो सी गयी है  
कोई इस रात की सहर देखो 

खोकर खुश है और पाकर भी तनहा 
ऐसा दीवानगी  का हशर  देखो 

जहाँ कभी शिद्दत से चले हम तुम 
आज फिर वो वीरान डगर देखो 

सुर्खियाँ था जो  कभी अखबारों की 
आज नहीं कोई उनकी खबर देखो 


नहीं कोई किसी का यहाँ पे 'मधुकर'
कैसे फिरती है यारों की नज़र देखो 

इन निगाहों से ये शहर देखो 
इन निगाहों से ये शहर देखो 

नरेश 'मधुकर' copyright 2012

Tuesday, July 31, 2012

तू रूठा

जब तू रूठा जब तू रूठा 
तब जग छूटा रे जग छूटा

अंतर्मन को लगी घुटन 
लगे सब झूठा रे सब झूठा 

टिकी थी तेरी नज़र जिधर 
तारा टूटा रे तारा टूटा 

दोस्त क्या और दुश्मन क्या 
सबने लूटा रे सबने लूटा

जब जीते गए जग से मधुकर
तब घर छूटा  रे घर छूटा ...

(यह पंक्तियाँ भक्त और भगवान के बीच की बात है )
© 2012 नरेश राघानी 'मधुकर

सिखाओ मुझको


गुनाहे मोहब्बत की आखिर क्या कीमत है 
हो सके तो कोई बताओ मुझको 

जाने किस घड़ी आये थे तेरे घर की डगर 
अब तो कोई बस यहाँ से ले जाओ मुझको 

वो शोख नज़र वो मदमस्त जुल्फें और आँखें नम
है कोई और उस सा तो ज़रा दिखाओ मुझको

सिखाया है बहुत राहे जिंदगी ने कुछ ऐसा 
करो करम अब तो अपना बनाओ मुझको 

कैसे हँसते है बेवफाई से अंजान होकर 
हो सके तो कोई सिखाओ मुझको


रिश्ता है दर्द से पुराना 'मधुकर'
हो सके तो ज़रा और तड़पाओ मुझको 



© 2012 नरेश'मधुकर'

Sunday, July 22, 2012

खता खा ली हमने


जब अपनों से खता खा ली हमने 
शराफत सबकी आज़मा ली हमने

अब न रहेगा ये अँधेरा कायम 
भीतर ही लौ जला ली हमने

खोये कई दिल अज़ीज़ लेकिन 
कुछ शोहरत कमा ली हमने 

दुनिया से शिकस्त खा कर मधुकर 
धड़कने दिल की दबा ली हमने


© 2012 नरेश राघानी 'मधुकर

Wednesday, July 18, 2012

खुद को लौ सा जलाया हमने


दर्द को ऐसे सजाया हमने
खुद को लौ सा जलाया हमने 

दौरे दीवानगी से निकले तो जाना 
क्या खोया क्या कमाया हमने 

मुद्दतों बाद ये एहसास हुआ
बोझे अश्क कितना उठाया हमने 

ये किस्सा भी दफन हो मेरे संग ही 
सोचकर किसी को न बताया हमने

तेरी वफाओं का यकीन था इस क़दर
तेरी जफा को भी गले लगाया हमने

© 2012 नरेश राघानी 'मधुकर'

Monday, July 16, 2012

प्यार करके देख ...




कर सके तो किसी से प्यार करके देख 
जीना अपना फिर दुश्वार कर के देख 

बीत न जाए ये बारिशें भी बस यूँ ही 
हिम्मत कर ज़रा इज़हार कर के देख 
मिलने की कीमत अक्सर तभी समझ आती है 
ज़रा किसी का इन्तेज़ार कर के देख

माना खता खूब खाई है अपनो से 'मधुकर'
इक बार फिर जिंदगी पे ऐतबार कर के देख 


नफरतों से कोई नही जीत पाया दुनिया
मोहब्बत इक बार बेशुमार कर के देख

नरेश मधुकर

Wednesday, June 20, 2012

मोहब्बत या तन्हाई ...

दो सहेलियां थीं
मोहब्बत और तन्हाई
दोनों साथ  साथ  पली
बड़ी
और जवान हुई
दोनों सहेलियों को इक  रोज़
एक ही दिल से प्यार हो गया
जहाँ जहाँ दिल को   मोहब्बत मिलती
तन्हाई भी उसके पीछे पीछे चली आती
वो दिल बड़ा भोला और सरल था
वो दोनों के रिश्ते के बीच की कश म कश से बेखबर
बस
ख़ामोशी से सारे पल निभाता रहा

एक दिन अचानक ...
मोहब्बत उस से नाराज़ हो गयी
दिल उसे खूब मनाने लगा
वो नहीं मानी
तन्हाई ये सब खड़ी चुपके चुपके
देख रही थी
उसे बड़ा गुस्सा आ रहा था मोहब्बत पे
और बड़ी जलन भी हो रही थी
दिल की मोहब्बत के लिए तड़प देख कर
लेकिन वो खामोश खड़ी देखती रही
दिल के लाख चाहने व रोकने पर भी 
उसकी मोहब्बत उस से 
सदा सदा के लिए नाराज़ हो कर 
दूर चली गयी ...
और दिल
दिल वही हताश
टूटा हुआ
खामोश खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा
दिल बीते लम्हों को याद कर
रोने लगा
तभी तन्हाई दबे पाँव उसके पास आयी
तन्हाई ने दिल का हाथ थामा
और जीने की हिम्मत देने लगी
उसने उसके आँसू पोछे
और उम्र भर दिल का साथ निभाने का वादा किया
शुरुआत में दिल थोडा घबराया
थोडा परेशान हुआ
पर धीरे धीरे
दिल को तन्हाई अच्छी लगने लगी
वो और उसकी तन्हाई घंटों साथ बिताने लगे
और जीवन एक बार फिर
चल पड़ा

आज कई साल बाद
उम्र के आखरी पडाव में
वही दिल सोच में पड़ गया है
और बार बार खुद से एक  ही सवाल करता है
की
आखिर
कौन बेहतर था
मोहब्बत या तन्हाई ...

नरेश 'मधुकर '

Monday, April 23, 2012

सोचिये ...


जाने ये कैसा जहां है सोचिये 
जग को जाने क्या हुआ है ,सोचिये 

सल्तनते आम  में नहीं कदर फकीरों की 
और कौन कौन कहाँ है ,सोचिये   

सुनता नहीं कोई किसी की यहाँ पर 
खामोशी का ये बयान है ,सोचिये 

कहीं तो लगी आग है इस वीरान शहर में 
जिस तरफ देखो धुआं हैं ,सोचिये 

मुफलिसों को मकबरा तक नसीब नहीं 
फिर वो आखिर क्या खुदा है ,सोचिये  

क़यामत के वक़्त तक कायम रहे सच  
अपनी तो बस इतनी दुआ है ,सोचिये 

नरेश "मधुकर"




Friday, April 13, 2012

ख्वाइश ...


जब ख्वाइश ख़्वाबों के सांचे में ढल जाती हैं
खुशनुमा जिंदगियां अक्सर बदल जाती हैं

दौड़ मोहब्बत की जीत पाना मुश्किल हैं इसमें  

हकीकत हसरत से आगे निकल जाती हैं  

ये दिलवालों का शहर है दिमागदारों हैरान मत हो
सिक्के नहीं यहाँ,प्यार की कौडियाँ भी चल जाती हैं

नहीं मुमकिन इस तपिश को थामे रखना ऐ दोस्त
ऐसी कोशिशों में अक्सर उंगलियाँ जल जाती हैं

न देखो मुड़ कर मेरी परवाह न करो 'मधुकर'

मेरी वफाएं खता खाकर अक्सर संभल जाती हैं ... 

नरेश 'मधुकर'

Monday, March 26, 2012

रास्ता और दूरी


एक था रास्ता 
और एक थी दूरी ...
दोनों बेसुध 
दोनों बेखबर
दोनों पागल 
एक दुसरे के लिए ...

वक्त की सतह पे 
दोनों साथ साथ
चलते थे ...
हँसते
खिलखिलाते 
ज़रा ज़रा सी बात पे खुश होते
एक दूजे के साथ
पल में खुश 
पल में दुखी
जग से परे 
हाथों में हाथ डाले 
गले में बाहें डाले
बस चलते रहते ...

प्यार में डूबे हुए 
दूरी रास्ते के बिन तय न हो पाती 
और
रास्ता दूरी के बिन भटक जाता 

अचानक ...
एक दिन न जाने
क्या हुआ 
सब बदल गया 
जाने 
किस की नज़र लग गयी 
दूरी बहुत आगे निकल गयी 
और रास्ता ..
रास्ता वही खड़ा देखता रहा
चाहते हुए भी उसे रोक नहीं पाया 
और वो बादलों को चीरती हुई
आँखों से ओझल हो गयी 
रास्ता अकेला पड़ गया 
और तभी से अकेला है 
आज तक 

लेकिन ...
आज भी 
उनका प्रेम अमर है
दुनिया में 
दोनों को 
एक साथ याद किया जाता है ...

नरेश मधुकर 

Wednesday, February 1, 2012

किधर जाऊं ...


तुझको ढूँढू कहाँ,मै किधर जाऊं
सोचता हूँ फिर उस ज़ालिम शहर जाऊं

आया न अब तक वो मोड़ मधुकर
लगता हो जहाँ दो पल ठहर जाऊं 

जिसे ओडे बड़ी शिद्दत से रोये हमतुम 
सोचता हूँ आज उस शजर जाऊं 

तेरे इंतज़ार में काट ली शामों सेहर 
तू न आया तो सोचता हूँ मर जाऊं 

अब तक तो कुछ दे न पाया तुझको 
खैर ये ग़ज़ल ही तेरे नाम कर जाऊं 


नरेश 'मधुकर'

Monday, January 23, 2012

सलीब पराये मुझे उठाने थे बहुत ...


कहने का सलीका न आया हमको  
वर्ना कहने को पास फ़साने थे बहुत

हाले दिल जब भी हमने कहना चाहा
न सुनने के उनके पास बहाने थे बहुत

न मिला वक़्त मुफलिसी में मोहब्बत के लिए
क़र्ज़ दुनिया के शायद चुकाने थे बहुत

बड़ा बेहिजाब हो हाथ छोड़ गया वो मेरा
शायद उसके पास ठिकाने थे बहुत

दर्दे दिल के लिए न मिली फुर्सत 'मधुकर'
सलीब पराये मुझे उठाने थे बहुत 

नरेश'मधुकर' 

सपने ...

सपने ...

ढेर सरे सपने

इंसान इन सपनो के पंछियों को 
सदियों अपनी पलकों पे पालता  है
इन्हें दाना डालता है
इनके लौटने का इंतज़ार करता है
सोचता है
कभी तो ये मुक्क़मिल होंगे
और वो जी भर के जीएगा
इनके साथ...
और भूल जायेगा
सारी तकलीफ
सारे गम
किस्मत कुछ और ही करती है
कुछ सपने मर जाते है
कुछ खो जाते है
कुछ धीमे पड़ जाते है
कुछ दूर निकल जाते है
फिर भी इंसान
उन्हें भूल नहीं पाता
उनका बदहवास पीछा करता है
उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है
और चाहता है वो उनके साथ रहे
और उनके लिए सब कुछ करता है
सब कुछ ...
जो कभी उसने सोचा ही न था
एक दिन उसे लगता है शाम हो गयी है
उसकी उम्र उसका साथ नहीं दे रही
और वो इन पंछियों के साथ
बहुत दूर निकल आया है
इतनी दूर की वो अब
वहां से वापस नहीं जा सकता
न जाना चाहता है
साँसे धीमी पड़ रही है
आँखें गहरा रही है लेकिनफिर भी वो 
उन सपनो को जिंदा रखने की कोशिश में  हैं 
की काश ...
पूरे हो जाये
काश पूरे हो जाते 
वो सपने ...

Monday, January 16, 2012

बाकि उल्फत के निशाँ क्यूँ है ...


मौला जाने ये दिल परेशाँ क्यूँ  है 
बिन उसके ज़िन्दगी  वीराँ क्यूँ हैं

छोड़ जाता है सदा हमसफ़र तन्हा
हर बार मेरी वही दास्ताँ क्यूँ है   

गर करती हो मुझसे इतनी नफरत
नम आँखों में बेबस बयाँ क्यूँ है

बे हिजाब भूल गया वो सब कुछ  
दर मेरा महफिले मह्कशां क्यूँ है

पूछता है जब कोई आवारगी का सबब   
लगता मैकदा कूचा-ऐ-दिल्बराँ क्यूँ है

मिट चुका हूँ ज़िन्दगी से उसकी 'मधुकर'
फिर बाकि उल्फत के निशाँ क्यूँ है

नरेश ''मधुकर''

Sunday, January 15, 2012

रात...

रात
कितनी घनी
कितनी अकेली
गहरे काले आस्मां का आँचल ओड़े हुए
जैसे किसी का इंतज़ार करती हुई
सदियों से ...
जागती हुई
सोचती हुई
कभी कोई तो आएगा
और बाँट लेगा
सारा दर्द
सारी तन्हाई
सारे ग़म
लेकिन ...
कोई नहीं आता
भोर आते आते उसकी
हिम्मत जैसे टूट जाती है
और वो सायों की आहट सुन कर
डर जाती है

साए...
वो साए
जो भोर को अपने संग लाये है
वो भोर जो उसे नापसंद है
लेकिन फिर भी
उसके मसीहा के न आने से
वो उस भोर से समझौता कर लेती है
और समा जाती है
उस धीमे उजाले में
जो कभी उसका बैरी होता था

काश कोई समझ पाता
उस अकेली रात का दर्द ...

नरेश''मधुकर''

Wednesday, January 11, 2012

जज्बातों के रंग

प्रिय मित्रो ,

              ''जज्बात्नामा '' तीन रंगों में ढाला गया हैं जिस में जज्बातों के अलग अलग रंग है और वो रंग है ग़ज़ल , कविता और  शेर  जो ख़याल जैसे आया वैसे ही मैंने कागज़ से कह दिया इस लिए ये एक सीधी सरल भावनाओ की अभिव्यक्ति है ... वैसे तो जज्बातों का बटवारा नहीं किया जा सकता लेकिन साहित्यिक दृष्टिकोण से ये थोडा ज़रूरी लगा जो की मैंने किया हैं

पहला रंग है ग़ज़ल 
मैंने अलग अलग विषय पर अपने अंतर्मन को टटोला है और उसे शाब्दिक रूप दे कर आप की नज़र कर रहा हूँ कुछ हद तक उर्दू शब्दों का भी मैंने सहारा लिया है जिस का ज्ञान मुझे अब तक जो कुछ भी पड़ा और सुना है बस उसी तक सीमित है इसलिए मुझे बहुत अच्छा लगेगा यदि कोई मेरी किसी गलती को मेरी शैली को सुधारने के मंतव्य से मुझ तक पहुंचाएगा .

दूसरा रंग है कविता 
सरल शुद्ध भावनाओं का धरा प्रवाह है जो की  तुकबंदी और बैर जैसी लेखन कलाओं से आज़ाद है और बहते पानी की तरह है इसे महसूस करने के लिए केवल शाब्दिक ज्ञान ही नहीं आत्मा से संवेदनशील होना भी ज़रूरी है.

तीसरा रंग है शेर  
वो ख़याल है जो शब्दों के दायरे में बन्ध कर नहीं रह सकते और उसे लंबा खीचने से उस का रस नहीं रहता .कोई ऐसी बात जो बड़ी तहज़ीब से और कम शब्दों में कही गयी है जो की अपने आप में एक विषय है.

मेरे गुरु कविराज डॉ हरीश मुझसे कहते है ''लेखनी तब उठाया करो जब अन्दर से आवाज़ आये अन्यथा तुम सिर्फ शब्द लिख पाओगे और तुम्हारा लेखन लोगो को सूखे गन्ने जैसा बिना रस का लगेगा''

मैंने मेरे गुरु जी की इस बात को गाँठ बंद लिया है अब चाहे मैं सैकड़ों किताबे न लिख पाऊँ तो कोई शोभ नहीं, लिखूंगा तो तभी जब मेरी अंतरात्मा मुझे आवाज़ देगी ....
और हाँ एक बात और जो की बहुत ज़रूरी हैं मेरी नज़र में वो ये की लेखन कलाओं का यदि कहीं मैंने भावनावश होकर उल्लंघन किया हैं तो मैं आप सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ 

ये सभी शब्द नहीं जज़्बात है जो मैंने जिए और महसूस किये है 
पल पल ...

आशा है आपको जज्बातों के ये रंग पसंद आएंगे और आप दिल से महसूस करेंगे मेरा अंतर्मन ..

सदैव आपका

नरेश''मधुकर''        

Saturday, January 7, 2012

कुछ और ही नज़ारा होता


कुछ और ही नज़ारा होता 
उल्फत का जो सहारा होता 

कश्ती न  डूबती यूँ बेबस हो कर 
पास तुझ सा कोई किनारा होता

क्यूँ भटकता मैं यूँ  दर ब दर 
चमन मेरा जो तूने सवार होता

हारकर भी जीत लेता दुनिया
तुझे मेरा साथ जो गवारा होता

हरा हूँ मैं तेरी मर्ज़ी से मौला
वर्ना कोई तो आज हमारा होता

नरेश''मधुकर"

यादें ...

यादें ...
बिखरी यादें
धड़कती यादें

यादों के वो तमाम पल 
आज भी कितने जीवंत है

जैसे कोई अनजान डोर 
जैसे सागर का दूसरा छोर 
भटकता रास्ता 
पीछे छूटा हुआ मोड़ ...

सब जैसे खींच रहे हैं 

बस तेरी ओर
बस तेरी ओर
बस तेरी ओर ...

नरेश''मधुकर''

Friday, January 6, 2012

वक़्त बहुत कम है ...

वक़्त बहुत कम है 
आओ जी लें 

हंस बोल ले..

संजो ले ये पल..

जब हम साथ हैं 
हाथों में हाथ है
कोई और नहीं चाहिए
जो मेरा है मेरे पास है
जाने कब इन पलों को नींद आ जाये
और ये गुज़रा कल बन जाये 

धो ले अंतर्मन 
सवार ले जीवन
इसी को बांधे पाश में
यही हमारा मधुबन

प्रेम निश्चल पानी है
लहरों की रवानी है
युगों तक याद रखोगे 
वो भूली कहानी है

कहानी को कह ले सुन ले 
आओ जी ले
वक़्त बहुत कम है
आओ जी ले ...


नरेश''मधुकर''

कुछ पल और तुम्हारे पास रहने दो ...



नहीं जाना चाहता मैं तुम से दूर
कुछ पल और तुम्हारे पास रहने दो

खोने के डर से
पाने के शिखर तक 
उस वीरान बस्ती से 
इस अनजान शहर तक 

जो कुछ भी पाया 

सब कुछ तुम्हारा है ...
 

यादों की लहर में बहने दो ...
कुछ पल और तुम्हारे पास रहने दो ...
 

अविस्मरणीय पल हो
निर्मल जल हो

बरसों की भटकन  
तपस्या का फल हो

मुझे न रोको आज 
मेरे दिल की बात कहने दो

कुछ पल और तुम्हारे पास  रहने दो
कुछ पल और तुम्हारे पास रहने दो ...


नरेश''मधुकर''

Tuesday, January 3, 2012

मुद्दतों से ये दर सूना है ...



मुद्दतों से ये दर सूना है
अब इस तरफ आता नहीं कोई ...

आहट परिंदों की सुनके ज़िंदा है हम 
खबर अच्छी इस तरफ लाता नहीं कोई ...

दुनिया दारी इस कदर हावी है आज कल 
दिल लगाने की ज़हमत उठाता नहीं कोई ...

खता अपनों से खा कर बैठे हैं मधुकर 
जख्मों पे मरहम लगाता नहीं कोई

करके वादा शायद भूल गए है वो 
उन्हें भी अब याद दिलाता नहीं कोई ...

नरेश''मधुकर'' 

Sunday, January 1, 2012

तीसरा रंग "शेर"

                                 


अब तक नहीं लौटा हूँ तेरे शहर से सनम 
वक़्त मिले तो ढूंढ़ लेना मैं  वही कहीं हूँ ...



वो समझता होगा खुद को कारीगर बड़ा 
मैं अपने हिस्से की वफ़ा निभा रहा हूँ ...  



हो जायेगा तू इस क़दर दुनिया में शामिल ,
मुझे तुझसे  ये उम्मीद न थी ...



वो बेरूख है या बेबस ये तो वही जाने,
मैं ये जानता हूँ मुझे बेपनाह मोहब्बत है ...



मेरे दिल पे क्या बीता है मुझ ही से पूछ ''मधुकर''
हो गयी उम्र तमाम हवाओं के नाम ...


बचा कुछ नहीं मेरे पास गुज़रे वक़्त के सिवा,
दौर-ऐ-मुफलिसी में भी कितना माला माल हूँ मैं ...


निभाने की अहमियत वो क्या समझेंगे 'मधुकर'
जो हर रिश्ते से उसका नाम पूछते हैं... 



उसकी बेरुखी कर चुकी थी राज़ बेपर्दा 'मधुकर' 
फिर आखिर वही हुआ जो अक्सर होता है ...


आता नहीं रास हमे किसी का होना 'मधुकर'
हम तो अपनी तन्हाई में मेह्फूस है ...


हार कर किस किस से  कहेंगे की हम ठीक थे 'मधुकर'
यहाँ फलसफा वो लिखता है जिसकी हिस्से जीत है ...


कर आये फना सब कुछ राह ऐ उल्फत में 
अब इसका दोष किसी और को क्या दें  ...
  

वो भी हो गया आज दुनिया में शामिल 'मधुकर'
जो कहता था न जी पाएंगे तेरे बिन ...



हर कोई मसरूफ है अपनी ज़िन्दगी में ''मधुकर''
इस तन्हा दिल की सोचता नहीं कोई ....




कितना समझाऊं दिल को कुछ नहीं रखा जज्बातों में
अच्छे अच्छे हो गए विदा दुनिया से इन हालातों में ....




मुफलिसी ने मोहब्बत की इजाज़त न दी 'मधुकर'
अब लगता है काश कोई मेरा भी होता ...




करके खून मेरे ऐतबार का 'मधुकर'
वो समझता है वो समझदार हो गया
जनता था कमबख्त बेवफा है फिर भी
जाने क्यूँ मुझे उस से प्यार हो गया...



जब उजालों ने हमसे दुश्मनी कर ली 
खुद को जला कर हमने रौशनी कर ली ...



दिल के सौदे में मधुकर फिर कोई बदनाम हुआ
बा मुश्किल ही सही ये किस्सा भी तमाम हुआ ...



जीने न दिया रस्मो रिवाज़ ने
कुछ मुश्किल फितरत बड़ा रही है
राहे वफ़ा में खुद को कर बैठे तन्हा
ज़िन्दगी हर पल जीना सिखा रही है ...


मिला कुछ भी नहीं मोहब्बत से 'मधुकर'
कुछ प्यारे जज़्बात गवा बैठे 
ये बदहवासी किसी काम न आई 
अपने भीतर की हर बात गवा बैठे ...


उस शिद्दत औ बेबसी का क्या कहना 
बस नज़र भर ही बहुत थी उम्र भर के लिए ...



गम छुपाना नहीं आता उसको 'मधुकर'
अश्क रोक नहीं पाया वो हँसते हँसते ...



जीयु कैसे पलकों पे वो पल उठाये हुए
की यादों का बोझ अब बर्दाश्त नहीं मुझको...



उस शहर की हर राह का कर्ज़दार है 'मधुकर'
जहाँ कभी हम तुम बड़ा खुल के जीए ...



मेरे जाने की खबर पे भी वो हँसता रहा
शायद वो इस से मायूस बहुत था ...



हो गया मसरूफ वो अपनी ज़िन्दगी में 'मधुकर'
हम खड़े इंतज़ार-ऐ-वफ़ा करते रहे ...



टुटा दिओ तो सब कुछ सरे आम हुआ
इश्क नीलाम कौड़ियों के दाम हुआ



ज़िन्दगी अजब रंग दिखा रही है 
फिर मर मिटने की घडी आ रही है ...



तहजीबों में बंधा मैं तेरी राह तकता हूँ
अब तो बस ख़्वाबों में तेरे आ सकता हूँ
दुनियादारी हावी है इस क़दर मुझ पे
हाले दिल बस खुद को बता सकता हूँ ...



दर्दे ज़िन्दगी अब क्या बयाँ करूँ 'मधुकर'
ये इक हादसों की फेहरिस्त है खुदा खैर करे...



हुनारे मोहब्बत अपने बस की बात नहीं 'मधुकर'
दीवानगी का मसला दीवानों को ही मुबारक हो ...



मत कर बुलंदी का गुरूर 'मधुकर'
ये तो वो शै है जो पल पल रंग बदलती है ...



सरहदें कब बाँध पाई है परिंदों के पर 'मधुकर'
जब भी दिल किया तब उस पार चले ..



देख कर घटा ये ख्याल आया मधुकर
क्यों न आसूं मैं सबके इसे दे दू ..



कैसे समझाता मैं उसे फासलों का मतलब
जो मेरे दिल के इतने करीब था
होते हुए भी वो न हो सका मेरा
खता उसकी नहीं ये मेरा नसीब था ...



निभता साथ कैसे' वो बहती नदी थी 'मधुकर'
मुझे प्यार बहुत था और उसे मंजिलें बहुत ...



ऐ बादल यूँ शिद्दत से न बरस
देख कर तुझे वो मासूम बहुत याद अता हैं ...



डर नहीं लगता मुझे अब किसी सैलाब से
डरता हु तो मैं फ़क़त सिर्फ अपने आप से ...



जगी इक बार फिर परिंदों की ख्वाइश है
ये परों की नहीं हौसलों की आज़माइश है ...



कहाँ ले आई हमको ये काफिर किस्मत 
कभी हम नहीं तो कभी सनम नहीं ...



कुछ पल मिले थे प्यार के ,जो साथ गुज़ार दिए
पर उन पलों ने मधुकर ,सपने हज़ार दिए
छोड़ कर चल दिए अपने पराये सभी
बुरे वक़्त ने कई , चश्में उतार दिए



हो गया काबिज़ ज़ेहन पे ,बड़ा  कारीगर था वो
जिसको तबस्सुम मैं आज तक जी रहा हूँ ...



रोकता कैसे मैं उसको जाने से
जब उसे मुझ पे ऐतबार ही न था ..
शायद मैं ही गलत समझ बैठा था मधुकर
उसे कभी मुझ से प्यार ही न था ...



न चला पता वो कब हट गया पीछे
मैं बड़ी शिद्दत से जिसे प्यार करता रहा
जाने क्या लोग रिश्तों को समझते हैं मधुकर
सवाल ये खुद से बार बार करता रहा ...



दगा देगी ये ज़िन्दगी इस क़दर
होता पता तो कब के मर जाते ..



भुलाऊ कैसे वो तबस्सुम मधुकर
मिली थी जो बड़ी मुद्दतों के बाद ...



मै खुश हूँ वो अब तक मुझे भूला नहीं मधुकर
ये तो मै ही था जो उसे बेवफा समझ बैठा ...


साथ छूट जाना किसी का बेवफाई नहीं मधुकर
एहसासे वफ़ा काफी है उम्र भर निभाने के लिए ...


हर शख्स पे काबिज़ दुनिया की वेह्शत है 
अब यहाँ प्यार की किस को फुर्सत  है
जीता हैं कौन इस जहाँ के लिए मधुकर
कायम दीवानों के बीच अपनी शोहरत है 


झूठ को जब जब सवारा जाएगा
सच सलीबों पर चदाया जाएगा
हदे वेहशत पार मत कर ऐ इंसान
क़यामत के रोज़ बहुत पछताएगा ...


कुछ तो कर गुज़ारना हैं मधुकर इस ज़माने में 
यूँ तो क्या रखा हैं बस आने और चले जाने में 


बचा कोई भी नहीं इस दुनियां में साफदिल मधुकर 
हर दिल पे अपनों की दी खरोंचे दिखाई देती हैं 


साथ किसी का हमे नसीब न हुआ वर्ना 
देखता ये ज़माना की वफ़ा किसको कहते हैं 


इस रंगीन ज़माने से हम बहुत बेहतर हैं मधुकर 
क्यूंकि हमने देखा हैं रंगों को अक्सर बदलते हुए ...


बड़ी मुश्किल है डगर सहारा नहीं कोई 
हर तरफ भीड़ हैं बस हमारा नहीं कोई 
सोचती हैं कश्ती गर्के आब होने से पहले 
उसकी किस्मत शायद अब सहारा नहीं कोई 


उन्हें तलाश हैं न जाने किस बहार की 
मेरी मोहब्बत उन्हें दिखाई नहीं देती 


इस जिंदगी का मधुकर अजब ही फसाना हैं 
हम ख़ाक से आयें है और ख़ाक में जाना हैं ...


जाओ जहाँ भरा है दिमागदारों से मधुकर 
हम खाक नशीनों के पास क्या रखा हैं 
जेब भरी लिए घूमते है सब यहाँ पर  
हमने जेब में भी दिल बिठा रखा हैं ...


ढाते हैं अपने ही सितम  क्या कोई गैर करे 
बदला बदला है मिज़ाजे वक़्त अब खुदा खैर करे 


होता है तय सफ़र कोई अंजाम नहीं होता 
कुछ रिश्तों का मधुकर नाम नहीं होता ...


इस कदर न मुझसे प्यार कर 'मधुकर'
जलता दरिया हूँ तू भी जल जाएगा 
ये हरारत यकीनन उल्फत की हैं 
काफिर ज़माने को पता चल जाएगा ...


ऐ क़यामत तेरे आने का शुक्रिया 
की थक गया था बहुत इस राह चलते चलते 


ऐ गुज़रते वक़्त ज़रा रुक कर तो देख 
किसी को कितनी चाहत है तेरे ठहर जाने की 


फिर इक बार ज़िंदा ख्वाईश हुई 
कशिश हद से गुज़री और बारिश हुई  ...


मुद्दतों बाद आज बरस रही है मुझ पे 
बारिशे उल्फत का यारो क्या कहना 


खुद अपने गम पे रोटी है बारिश 
इस तनहा दिल की सोचता नहीं कोई  ...


ऐ बरसते बादल ज़रा झुक कर के देख 
कैसे गम छिपाया है मेरे यार ने ...