Sunday, January 15, 2012

रात...

रात
कितनी घनी
कितनी अकेली
गहरे काले आस्मां का आँचल ओड़े हुए
जैसे किसी का इंतज़ार करती हुई
सदियों से ...
जागती हुई
सोचती हुई
कभी कोई तो आएगा
और बाँट लेगा
सारा दर्द
सारी तन्हाई
सारे ग़म
लेकिन ...
कोई नहीं आता
भोर आते आते उसकी
हिम्मत जैसे टूट जाती है
और वो सायों की आहट सुन कर
डर जाती है

साए...
वो साए
जो भोर को अपने संग लाये है
वो भोर जो उसे नापसंद है
लेकिन फिर भी
उसके मसीहा के न आने से
वो उस भोर से समझौता कर लेती है
और समा जाती है
उस धीमे उजाले में
जो कभी उसका बैरी होता था

काश कोई समझ पाता
उस अकेली रात का दर्द ...

नरेश''मधुकर''

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