सोचता हूँ फिर उस ज़ालिम शहर जाऊं
आया न अब तक वो मोड़ मधुकर
लगता हो जहाँ दो पल ठहर जाऊं
जिसे ओडे बड़ी शिद्दत से रोये हमतुम
सोचता हूँ आज उस शजर जाऊं
तेरे इंतज़ार में काट ली शामों सेहर
तू न आया तो सोचता हूँ मर जाऊं
अब तक तो कुछ दे न पाया तुझको
खैर ये ग़ज़ल ही तेरे नाम कर जाऊं
नरेश 'मधुकर'