Sunday, September 2, 2012

न ज़मीं मिली न आस्मां मुझको


न ज़मीं मिली न आस्मां मुझको 
न मिली मंजिल न कारवां मुझको

बिन तेरे ये शाम नहीं कटती 
लगे कातिल ये आस्मां मुझको 

तेरे तस्सवुर से आबाद था जो 
लगे वो शहर अब वीरां मुझको


रहे फिरते यूँ ही दरबदर मधुकर 
सुनाती आवारगी दास्ताँ मुझको 


बिन तेरे जीए जा रहा हूँ बेसुध
लगे तिश्नगी रहनुमां मुझको

नरेश मधुकर

No comments:

Post a Comment