Wednesday, September 5, 2012

अंतर्मन ...


मैं कोई बहुत बड़ा  कवि नहीं हूँ ,न ही कोई ऐसी बड़ी  शख्सियत ...... मैं केवल एक आम इंसान हूँ एक ऐसा आम आदमी जो सुबह उठता है हज़ारों सपने लेकर और दिन भर अपने आप को इस मायूस भीड़ में दूंदता है .शाम होते होते थक जाता है और घर लौट ता है इस एहसास के साथ ...

                                          ''इतनी अच्छी दुनिया अब रही ही नहीं है''

इस  आम आदमी ने जीवन में बहुत कुछ देखा,सहा,और महसूस किया है और जितना भी ज्ञान है वो अपने अंतर्मन के एहसास से ही  अर्जित किया है , कई घटनाओं व दुर्घटनाओं का शिकार होने पर भी उस आम आदमी ने अपनी हिम्मत नहीं छोड़ी सब कुछ परम पिता परमेश्वर पे छोड़ दिया और एक ही पंक्ति में अपने जीवन का सार देखा
                                       '' दीनबंधु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ ''

ईश्वर ने इन पंक्तियों की  लाज भी रखी .जीवन में कई बार उसे लगा की शायद मैंने पिछले जनम में कुछ तो  किया है जो आज इस युग और काल में प्रभु ने पैदा कर दिया और ये सब मुझे देखना पड़ा है हर तरफ पाप, द्वेश,प्रतिस्पर्धा ,भौतिकता,हिंसा,क्रोध,और पता नहीं किस किस तरह के नए नए कुरूप अवतार इस संसार में घर किये हुए है जो इतने बलशाली दीखते है जैसे सीधे सरल इंसान को तो खा ही जायेंगे ....परन्तु उसे विश्वास था की  इन सब को भी बनाने वाला वही ईश्वर है जिसने प्रेम,स्नेह,सरलता,सच्चाई,वफ़ा,जैसे एहसास भी बनाये है ये सारे कुअवातार बलशाली दिखाई  ज़रूर देते  है लेकिन अंततः उनकी पराजय भी निश्चित है.

इस आम इंसान को हैरानी  है की सियासत के चलते लोगों ने सिर्फ ज़मीन और रूतबा ही नहीं बांटा बल्कि अब तो ये हद है इस प्रतिस्पर्धा के दौर के चलते की वो अब भाषा, साहित्य और अंतर्मन का भी बंटवारा चाहते है जबकि भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है किसी की निजी जागीर नहीं .क्या जो बोल नहीं पाते उनके विचार नहीं होते ,क्या पंछियों के विचार नहीं होते बल्कि समझने वाला हो तो जल ,हवा ,धरती ,अम्बर इन सभी की खामोशी इतनी बोलती हुई प्रतीत होती है की इंसान को छोटा महसूस करा दे जो की कभी राजस्थानी तो कभी उर्दू ,कभी मराठी तो कभी गुजराती साहित्य के आधार पे बंटवारा चाहता है और कब सियासत का शिकार हो जाता है उसे खुद भी मालुम नहीं पड़ता.साहित्य को इस सियासी खेल तमाशे से बचाए रखने की ज़रूरत है क्यूंकि साहित्य एक ऐसी धरोहर है जो किसी भी सभ्यता की महानता का निर्मल आईना है और इस आईने पे चालाकी की खरोंचे ठीक नहीं है.

ये व्यवस्थाओं का युग है , कलाकार से ज्यादा व्यवस्थाकार का महत्व हो गया है
आज कल यही व्यवस्थाकार कहीं न कहीं कलाकार का मनोबल तोड़ता दिखाई देता हैं .इस बात को समझने की आवश्यकता हैं की यदि कलाकार की भावनाओं का ही नाश हो जायेगा तो व्यवस्था फिर किस चीज़ की करेंगे इसलिए दरअसल महत्व भावनाओं का है जिस से कला का जन्म होता है और कलाकार भावनाओं के वशीभूत होकर प्रदर्शन करता है अपनी कला का .इस चमत्कारिक भाव तत्त्व को बचाए रखने की ज़रूरत हैं दुनयावी खेल तमाशे से .

एक और बात जो सोचने पे मजबूर करती है की बड़े कवि व गज़लकार कैसे एक वर्ष में पांच दस किताबें लिख लेते है जबकि लेखनी तो तभी उठाता है इंसान जब अंतर्मन में घुटन हो और विचारों की अभिव्यक्ति कहीं न कहीं दुनियादारी के चलते बाधित होती हो ... तभी उस लेखन में रस और वो बात आती है जो दुनिया को अच्छी लगती है .... जहा तक इस आम आदमी का सवाल है उसे तीन वर्ष लग गए ये सब लिखने में. और लोगो तक पहुँचाने में
खैर जो भी है सब बातों का उत्तर काल के चलते इंसान खुद ही ढूंढ लेता है इस का जवाब भी मिल ही  जाएगा.

इस सब दुनियावी शोर शराबे के बीच रहते हुए भी इस आम आदमी ने प्रेम का  पावन एहसास महसूस किया  और जो कुछ उसे इस एहसास से मिला वो पंक्तिबद्ध कर ''जज्बात्नामा'' एक खुबसूरत तोहफे के रूप में दुनिया को लौटाने का प्रयास किया है.ये प्रयास कितना सफल हुआ ये अभी ईश्वर की इच्छा और भविष्य की गोद में है

उस प्रेरणा स्त्रोत का आभार व्यक्त किये बिना ये सब अधूरा है जिस की वजह से ''जज्बात्नामा'' है सच तो ये है की यदि वो इंसान जीवन में न आता तो ये किताब कभी पूरी न होती उसका ख़याल मुझे सदा मेरे जज़्बात  कागज़ पे उतारने  को प्रेरित करता रहा ईश्वर  उसे जीवन में वो सब कुछ दे जो उसने चाहा है ...

आशा है ये प्रयास आप लोगो को अच्छा लगेगा और आप दिल से महसूस करेंगे इसका आम आदमी के अंतर्मन को

मैं जज्बातनामा समर्पित करता हूँ  मेरे परम पिता परमेश्वर को जिसने मुझे ये सब पल दिए और ये सब लिखने,सोचने और समझने की शक्ति दी ... जय श्री कृष्ण


नरेश''मधुकर''  

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