कहाँ के लिए चला था ... और कहाँ आ गया
लेखनी दादी माँ से मिली और जज़्बात हादसों से
१६ अप्रैल १९७६ को इन हालातों के सफर में शामिल हुआ और
आज तक संघर्ष जारी है ... पूर्वज ३ पीड़ी पहले वाराणसी से अजमेर
आ गए थे गंगा मैया के आशीर्वाद साथ लेकर
शिक्षा दीक्षा अजमेर में हुई ,समाज सेवा के अलावा अब तक जिंदगी में कोई
ऐसी खास बात नहीं जो बतायी जाये.
खुद से बातें करते करते कब "जज्बात्नामा"
कलमबद्ध हो गया पता ही नहीं चला ...
बाकी सब कुछ इन रचनाओं से बात करेंगे तो जान जायेंगे
ये मुझे अपने आप से ज्यादा जानती हैं ...
जय श्री कृष्ण
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आयी है बेवफाई ओढकर नए नकाब
कहीं अंजामे दिल फिर वही तो नहीं ...
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जब सब ज़रूरतों को रखा किनारे पे मधुकर
हुआ गुमान तब की उन्हें मेरी ज़रूरत ही नहीं ...
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अपने ही मद में फिर रहा है मधुकर
इस ज़माने की उसे परवाह ही नहीं ..
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कैसे रोकूँ उन्हें दूर जाने से मधुकर
लगता है अब मेरा अख्तियार ही नहीं ...
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वो बरसता रहा मेरी बेवफाई पे मधुकर
मैं खडा सब कुछ सुनता ही रहा
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कहते कहते वो छुओ हो जाते हैं मधुकर
अब तक शायद उन्हें यकीन नहीं मुझ पे
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उस कमज़र्फ तबस्सुम को क्या समझूँ
कहीं ये इजहारे मोहब्बत तो नहीं
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कहूँ कैसे मुझे मोहब्बत है 'मधुकर'
वो मुझको बस दोस्त समझ बैठा हैं ...
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सुबह रोज मेरी यूँ ही खुशगवार हो जाए
यूँ ही अगर मधुकर दीदारे यार हो जाये ...
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जो भी है अब तेरा है , भीड़ भी तन्हाई भी
पाते हैं अब सभी सज़ा, काफिर भी हरजाई भी
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मन मुताबिक़ किसी को क्या मिला हैं
हर शख्स को इस ज़िंदगी से गिला हैं
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कर तो रहे हो मुझे तुम खुद से जुदा
इक दिन ढूंढोगे तुम्ही मेरे निशाँ
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अय सांझ खुद को अकेला न समझ
कई परिंदों की राह तेरे संग बदलती हैं
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आओ फिर उस घड़ी घूम आयें
हैसियत से छोटे थे जब ये साये
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इस शोर में ये खामोशी लिए फिरता हूँ
हथेली पे जैसे ज़िंदगी लिए फिरता हूँ
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तेरी नफरत कि मुझे परवाह नहीं 'मधुकर'
ये सोच कर मैं खुश हूँ कि कुछ तो हैं ...
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तेरी कड़वाहट तुझे मुबारक दुनियां
मैं तो मधुकर हूँ मुझे वही रहने दे ..
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अब तक हैं उन हाथों कि तपिश कायम
राहे उल्फत में जो मधुकर से छूट गए ...
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वक्त ने काट दिए ख्वाइशों के पर वर्ना
उड़ान अपनी भी आस्मां के पार होती .
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चला फकीरा गाँव रे
चला वो नंगे पाँव रे
अब तो ऎसी लगन लगी
ना धूप लगे ना छाँव रे ...
ढल ढल के थक गया सवेरा
घुटने लगा अंतर्मन्न मेरा
अहसासों कि होने लगी है
अब तो बेबस शाम रे ...
नरेश मधुकर
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जाना हैं तो हद के पार जा मधुकर
हदों में रहकर मोहब्बत नहीं होती
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इस शहर में हर रोज खुदा मिलता
जब भी मिलता हैं जुदा मिलता है
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न देखा मुड़कर उन्होंने इसका गिला नहीं मुझको
अब तक उनसा 'मधुकर' कोई मिला नहीं मुझको ...
लेखनी दादी माँ से मिली और जज़्बात हादसों से
१६ अप्रैल १९७६ को इन हालातों के सफर में शामिल हुआ और
आज तक संघर्ष जारी है ... पूर्वज ३ पीड़ी पहले वाराणसी से अजमेर
आ गए थे गंगा मैया के आशीर्वाद साथ लेकर
शिक्षा दीक्षा अजमेर में हुई ,समाज सेवा के अलावा अब तक जिंदगी में कोई
ऐसी खास बात नहीं जो बतायी जाये.
खुद से बातें करते करते कब "जज्बात्नामा"
कलमबद्ध हो गया पता ही नहीं चला ...
बाकी सब कुछ इन रचनाओं से बात करेंगे तो जान जायेंगे
ये मुझे अपने आप से ज्यादा जानती हैं ...
जय श्री कृष्ण
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आयी है बेवफाई ओढकर नए नकाब
कहीं अंजामे दिल फिर वही तो नहीं ...
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जब सब ज़रूरतों को रखा किनारे पे मधुकर
हुआ गुमान तब की उन्हें मेरी ज़रूरत ही नहीं ...
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अपने ही मद में फिर रहा है मधुकर
इस ज़माने की उसे परवाह ही नहीं ..
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कैसे रोकूँ उन्हें दूर जाने से मधुकर
लगता है अब मेरा अख्तियार ही नहीं ...
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वो बरसता रहा मेरी बेवफाई पे मधुकर
मैं खडा सब कुछ सुनता ही रहा
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कहते कहते वो छुओ हो जाते हैं मधुकर
अब तक शायद उन्हें यकीन नहीं मुझ पे
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उस कमज़र्फ तबस्सुम को क्या समझूँ
कहीं ये इजहारे मोहब्बत तो नहीं
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कहूँ कैसे मुझे मोहब्बत है 'मधुकर'
वो मुझको बस दोस्त समझ बैठा हैं ...
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सुबह रोज मेरी यूँ ही खुशगवार हो जाए
यूँ ही अगर मधुकर दीदारे यार हो जाये ...
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जो भी है अब तेरा है , भीड़ भी तन्हाई भी
पाते हैं अब सभी सज़ा, काफिर भी हरजाई भी
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मन मुताबिक़ किसी को क्या मिला हैं
हर शख्स को इस ज़िंदगी से गिला हैं
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कर तो रहे हो मुझे तुम खुद से जुदा
इक दिन ढूंढोगे तुम्ही मेरे निशाँ
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अय सांझ खुद को अकेला न समझ
कई परिंदों की राह तेरे संग बदलती हैं
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आओ फिर उस घड़ी घूम आयें
हैसियत से छोटे थे जब ये साये
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इस शोर में ये खामोशी लिए फिरता हूँ
हथेली पे जैसे ज़िंदगी लिए फिरता हूँ
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तेरी नफरत कि मुझे परवाह नहीं 'मधुकर'
ये सोच कर मैं खुश हूँ कि कुछ तो हैं ...
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तेरी कड़वाहट तुझे मुबारक दुनियां
मैं तो मधुकर हूँ मुझे वही रहने दे ..
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अब तक हैं उन हाथों कि तपिश कायम
राहे उल्फत में जो मधुकर से छूट गए ...
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वक्त ने काट दिए ख्वाइशों के पर वर्ना
उड़ान अपनी भी आस्मां के पार होती .
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चला फकीरा गाँव रे
चला वो नंगे पाँव रे
अब तो ऎसी लगन लगी
ना धूप लगे ना छाँव रे ...
ढल ढल के थक गया सवेरा
घुटने लगा अंतर्मन्न मेरा
अहसासों कि होने लगी है
अब तो बेबस शाम रे ...
नरेश मधुकर
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जाना हैं तो हद के पार जा मधुकर
हदों में रहकर मोहब्बत नहीं होती
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इस शहर में हर रोज खुदा मिलता
जब भी मिलता हैं जुदा मिलता है
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न देखा मुड़कर उन्होंने इसका गिला नहीं मुझको
अब तक उनसा 'मधुकर' कोई मिला नहीं मुझको ...
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